बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शनसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - ३
यजुर्वेद संहिता : शिवसंकल्प सूक्त
प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
उत्तर -
शिवसङ्कल्प सूक्तम्
यज्जाग्रतो दूरमुदेति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति। दूरमङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मेमनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥१॥
सन्दर्भ - षट् मन्त्रों से युक्त शिवसङ्कल्प सूक्त का यह प्रथम मन्त्र शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिन वाजसनेय संहिता के ३४वें अध्याय से प्रस्तुत है। इसके ऋषि ' याज्ञवल्क्य (वल्क शब्द व्यापक अर्थों में आवरण वाची है, जो व्यक्ति यज्ञमय वल्कल से आच्छादित है वही याज्ञवल्क्य है) तथा देवता 'मन' है। 'त्रिष्टुप् छन्द में निबद्ध यह मन्त्र पितृमेध में विनियुक्त है ॥१॥
प्रसंग - 'मनसैवानु द्रष्टव्यम् एतदप्रमेयं ध्रुवम्' अर्थात् मन के द्वारा ही अप्रमेय तथा ध्रुव सत्य का बोध सम्भव है। इस मन को प्रकृष्ट ज्ञान चेतना व धारणा के नाम से व्यपदिष्ट किया जाता है क्योंकि इसके बिना किसी भी कर्म में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती तो क्यों न हम सर्वप्रथम मन को ही शुभ सङ्कल्पों से पूरित करें जो हमें उचित दिशा बोध कराये। ऐसा ही उल्लेख इस मन्त्र में किया गया है ॥१॥
हिन्दी अनुवाद - जो मन पुरुष की जाग्रतावस्था में अधिक दूर चला जाता है, जो एकमात्र आत्मा का दर्शन करने वाला है, जो पुरुष की सुषुप्त्यवस्था में उसी प्रकार लौट आता है (तथा) जो समस्त बाह्य इन्द्रियों का एकमात्र प्रकाशक है, वह मेरा मन शुभ सङ्कल्प वाला होवे ॥१॥
व्याख्या - शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि मनुष्य मन से जो सोचता है, वाणी से वही बोलता है, जो वाणी से बोलता है वहीं कर्मेन्द्रियों से करता है और जो कर्म करता है उसी को प्राप्त होता है अर्थात् वैसा ही बनता है क्योंकि मन के द्वारा किये जाने वाले विभिन्न सङ्कल्प ही समस्त कर्मों के आधार होते हैं। हम एक स्थान पर बैठे-बैठे ही मन के द्वारा न जाने कहाँ-कहाँ भ्रमण कर आते हैं न जाने क्या-क्या योजनायें बना डालते हैं। ऐसे में यदि मेरा मन शुभ सङ्कल्पों से युक्त होगा तो हमारी उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा ॥ १।
टिप्पणी - जाग्रतः जाग्र निन्द्राक्षये + शतृ प्र० षष्ठी ए०व०। उदैति उत् + आ + एति (इण् - गतौ, लट् लकार प्र० पु० ए० व०) दैवम् - दीव्यतीति देवः, दिव् + अच्)।
देवो गृह्यतेऽनेनेति दैवम - देव + अण्। अथवा देवे भवमिति दैवम् (महीधर भाष्य )। देवस्य जगन्नियन्तुः इदम् ( दर्शनसाधनत्वेन ) इति देवम्। सायणाचार्य ने तथा अन्य व्याख्याकारों ने जो करण में अण् किया है वह विग्रह नहीं है, केवल अर्थ प्रदर्शन मात्र है। महीधर ने जो भवम् की व्युत्पत्ति की है वह सर्वथा अशुद्ध है। दूरंगमम् दूरं गच्छतीति। दू + गम् + खच्। शिव सङ्कल्पम् शिवसङ्कल्पो यस्य तत् (बहुब्रीहि )
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येन कर्माण्यपसो मनीषिणो, यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः। यदपूर्व यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥२॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र शुक्ल यजुर्वेद अध्याय ३४ का दूसरा मन्त्र है। इसके ऋषि याज्ञवल्क्य, देवता 'मन' तथा छन्द 'त्रिष्टुप् है ॥२॥
प्रसंग - जीवन की पवित्रता केवल मानसिक पवित्रता से ही होती है। इन्द्रियाँ भी मन के पवित्र होने पर दर्शनादि क्रियायें पवित्र भाव से करती हैं तथा पवित्रता के कारण ही हमारे अङ्ग अनैतिक कर्मों के प्रति उन्मुख नहीं होते। मानस शक्ति की अनुपमेयता तथा विलक्षणता का अति सुन्दर निर्देशन इस मंत्र में किया गया है ॥२॥
हिन्दी अनुवाद - मानव का मन यदि शुद्ध सत्य सङ्कल्प काम-क्रोधादि विकार रहित हो जाये तो उसे धीर या मनीषी कहा जाता है। कर्म प्रधान मानव मन के बिना कोई कार्य नहीं करता इसीलिए वह प्रत्येक प्राणी के अन्दर श्रेष्ठ एवं उत्कर्ष माना जाता है। भगवान् की अनुकम्पा से वह मन पवित्र विचारों वाला बने ॥२॥
व्याख्या - मन प्रत्येक पाणी के हृदयाधिष्ठान् में स्थित रहता है वह अपनी इच्छानुसार समस्त शरीरेन्द्रियों को चलाता है। उसी मन में कर्मनिष्ठ बुद्धिमान पुरुष यज्ञ में तथा उपासनाओं में कर्म करते हैं। अतएव उस मन को सर्वोत्तम गुण कर्म स्वाभाव वाला माना गया है। ऐसा यक्ष (श्रेष्ठ) स्वरूप अथवा पूजनीय मेरा मन शिवसङ्कल्पों अर्थात् कल्याणकारी सङ्कल्पों से युक्त हो।
टिप्पणी - अपस: - अपस् शब्द से मत्वर्थीय (तदस्ति येषां ) के अर्थ में 'अस्मायामेधा' 'स्रजोविनिः' सूत्र से विन् प्रत्यय। इष्ठन् आदि प्रत्यय के अभाव में भी विन् का लोप हो गया है।
मनीषिण - मनस + ईषा = मनीषा (शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्) मनीषा शब्द से मनीषा अस्ति येषां ते इस विग्रह में मत्वर्थीय इनि प्रत्यय। २॥
कृण्वन्ति - कृ करणे का स्वादिगण के समान लट् लकार प्र० पु० ब० व० का वैदिक रूप। यज्ञे यज् + नङ्ं। विदथेषु + विद्यन्ते ज्ञायन्ते इति विदधानि तेषु। 'विज्ञाने' धातु से उणादि का अथ प्रत्यय।
धीराः - धी + रा + कः धियं रान्तीति गृह्णान्तीति विग्रहः। यक्षम् - धातु से औणादिक स प्रत्यय ॥
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यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्जयोतिरन्तरमृतं प्रजासु। यस्मान्न ऋते किञ्चन्, कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥३॥
सन्दर्भ - इस मन्त्र के ऋषि याज्ञवल्क्य, देवता मन, छन्द त्रिष्टुप् है। यह शुक्ल यजुर्वेद के ३४वें अध्याय से अवतरित किया गया है। यह मंत्र पितृमेध विनियुक्त है॥ १३॥
प्रसंग - संकट की विकट स्थितियों में भी जो धैर्यपूर्वक अन्तःकरण का अनुसरण करता है वह सदैव उत्तम पद को प्राप्त करता है। इस प्रकार का ही वर्णन इस मंत्र में किया गया है।
हिन्दी अनुवाद - जो मन विशेष ज्ञान तथा सामान्य ज्ञान का साधन है, जो धैर्य रूप है, जो प्राणियों के भीतर (इन्द्रियों की प्रेरक) अमर ज्योति हैं तथा जिसके बिना कोई भी काम नहीं किया जा सकता। वह मेरा मन शुभ सङ्कल्पों वाला होवें।
व्याख्या - जो मन इन्द्रियजन्य ज्ञानों का एकमात्र कारण स्थान है तथा प्रत्येक पदार्थ विषयक सामान्य और विशेष ज्ञानों का उत्पादक है। ज्ञान चेतना तथा धारणा बुद्धि के कारण है, जिसके बिना किसी कर्म में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती। इसके द्वारा ही भूत, भविष्य तथा वर्तमान के समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है।
टिप्पणी - प्रज्ञानम् - प्रकर्षेण ज्ञायते अनेन। प्र + ज्ञा + ल्युट्। चेतः चेतयति सम्यग् ज्ञापयतीति॥ चेतः। चिती सञ्जाने + णिच् + असुन णिच् का लोप हो जाता है। धृतिः धृ + त्कितन्। यस्मात् ऋते ऋते - के योग में यस्मात् पद में 'अन्यारादितरर्ते इत्यादि सूत्र से पञ्चमी विभक्ति किञ्चन किम् शब्द से अपि अर्थ में चित् और चनप् दो प्रत्यय पृथक्-पृथक् होते हैं। यहाँ चनप् प्रत्यय है। योगदर्शन में 'देश बन्धश्च तस्य धारणा और समाधि यह तीनों मन के द्वारा ही होते हैं। धृति शब्द शेष दो का उपलक्षण हैं। योग दर्शन में अन्यत्र लिखा है कि 'विषयमती प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थिति निबन्धनी इत्यादि ॥३॥
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येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्। येन यज्ञस्तायते सप्त होता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥४॥
सन्दर्भ - शिवसङ्कल्प सूक्त से उद्धृत यह मन्त्र शुक्ल यजुर्वेद के ३४वें अध्याय से अवतरित किया गया है, जिसके ऋषि 'याज्ञवल्क्य', देवता 'मन' व छन्द ' त्रिष्टुप' है ॥४॥
प्रसंग - भूत, भविष्य और वर्तमान में जो भी योजनायें हम बनाते हैं वह मन के द्वारा ही स्मृति में स्थिर रहती है और समयानुसार हम उन योजनाओं को क्रियान्वित करते हैं। इस प्रकार का वर्णन ही इस मंत्र में किया गया है ॥४॥
हिन्दी अनुवाद - जिस अमर मन के द्वारा इस संसार में भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल के सब पदार्थ जाने जाते हैं और जिसके द्वारा सात होने वाला (अग्निष्टोम ) यज्ञ किया जाता है, वह मेरा मन शुभ सङ्कल्प वाला होवे।
व्याख्या - मानस शक्ति की अप्रतिम विलक्षणता का इस मन्त्र में बोध कराया गया है। मानव के पास यदि मन न हो तो वह अपनी कही हुई बात को त्वरित ही विस्मृत कर सकता है। किसी भी कार्य का उसे स्मरण ही नहीं रहेगा, किन्तु मन ही एक ऐसा साधन है। जो किसी भी काल में किये गये सङ्कल्पों को स्थायी रूप से स्मृति में रखता है और समयानुकूल होने पर उन कार्यों को क्रियान्वित करता है। अतः ऐसा अमृत समान मन शिव सङ्कल्प वाला होवे ॥४॥
टिप्पणी - भुवनम् भवतीति भुवनं (अथवा भवन्ति भूतजातानि यत्र तत्) भुवनं - लोकः। भविष्यत् भू + लृट् + शतृ। 'लृटः सद्वा'। सप्त होता सप्तहोतारो यस्मिन् सः (बहुब्रीहिः) 'शेषाद्विभाषा' से वैकल्पिक कप नहीं हुआ। तायते तन् + विस्तारे + यक् कर्मणि + लट् प्र० पु० ए० व० तनोतेर्यकि' से तन् धातु के नकार का वैकल्पिक आकार आदेश। सप्त होता शब्द अग्निष्टोमयाग में परिभाषिक है और वहां १- होतृ २- पोतृ ३- मैत्रावरुण ४ ग्रावस्तुत, ५- ब्राह्मणच्छंसी, ६- अच्छावाक् तथा ७- अग्नीट् या ( अग्नीघ्र ). नामक सप्तहोता यज्ञ के कराने वाले होते हैं। अग्निष्टोम शब्द का अर्थ है अग्नि प्रकाशस्वरूप परमात्मा के दर्शन कराने वाले या ज्ञान कराने वाले मन्त्र विशेषों का स्तोम = समुदाय। इस यज्ञ से स्वर्ग अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती है। परमात्म ज्ञान के साथ आत्म ज्ञान भी होता है। जिसे हम शरीरगत साधनों (१- कर्मेन्द्रिय, २- ज्ञानेन्द्रिय, ३- मन, ४- बुद्धि, ५- चित्त, ६- अहङ्कार और आत्मा) से प्राप्त कर लेते हैं तथा जिनके अथर्ववेद के प्रथम मन्त्र " ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः' में निर्देशित किया गया है।
सप्त होता का तात्पर्य ऐसे यज्ञ से भी है, जिसमें सात आहुति देने वाले हो, वे शरीर में पाँच प्राण, बुद्धि तथा आत्मा अथवा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ बुद्धि तथा जीवात्मा ये सात आहुति देने वाले यज्ञकर्ता हैं जो मन की सहायता से जीवन रूपी यज्ञ का विस्तार करते हैं। ४ ॥
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यस्मिन्नृ चः साम यजूंषि यस्मिन्, प्रतिष्ठिता रथना भाविवाराः। यस्मिश्चितँ सर्वमोतं प्रजानां, तन्मे मनः शिव सङ्कल्पमस्तु ॥५॥
सन्दर्भ - शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेय संहिता का शिवसङ्कल्प सूक्त का पूवाँ मन्त्र है। शिवसङ्कल्प सूक्त के सभी मन्त्र पितृमेध में विनियुक्त हैं। इस सूक्त के ऋषि 'याज्ञवलक्य' देवता 'मन' तथा 'त्रिष्टुप् छन्द हैं ॥५॥
प्रसंग - प्रस्तुत मन्त्र में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि प्राणियों का मन चंचल अर्थात् चलायमान न होकर स्थिर है तभी वह ऋग्, यजुः एवं साम जैसे वेदार्थ को ग्रहण कर सकता है क्योंकि प्राणियों की समस्त ज्ञान, स्मरण और तत्पूर्वक क्रियायें मन से ही ओत-प्रोत हैं ॥५॥
हिन्दी अनुवाद - रथ-चक्र की नाभि में तीलियों की भाँति जिस मन में ऋचायें, साम और यजुः प्रतिष्ठित होते हैं। जिसमें प्राणियों का सर्व पदार्थ विषयक ज्ञान निहित है, वह मेरा (ज्येष्ठ) मन शुभ सङ्कल्पों से युक्त हो।
व्याख्या - मन की श्रेष्ठता को वर्णित करता हुआ ऋषि कहता है कि जिस प्रकार रथ के पहिये की नाभि में क्रम से तीलियाँ धंसी रहती हैं उसी प्रकार से स्तुति, शान्ति और क्रिया करने के सङ्कल्प मन में प्रविष्ट रहते हैं। समस्त प्रकार के ज्ञान का उदय मन के ही द्वारा होता है। मैत्रायणी उपनिषद् में लिखा गया है-
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बन्धाय विषयासक्तं मुक्तयै निर्विषयभ्मनः। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ॥६॥
अर्थात् मन ही मनुष्यों की उन्नति, अवनति, मोक्ष अथवा बन्धन का कारण होता है। अतः हे प्रभु मेरा मन सदैव शिवसङ्कल्प वाला हो॥५॥
टिप्पणी - चित्तम् चिती सञ्ज्ञाने धातु से रक्त प्रत्यय / चेतयते बुद्धयते शब्दमर्थ वा इति चित्तम्। ओतम् - आ + उतम् 'वेञ' तन्तु सन्ताने + त्क्त वे का सम्प्रसारण होकर उ भाव। तीनों या चारों वेदों का मन में प्रतिष्ठित होना शब्द रूप वेद का स्मरण या कण्ठस्थ करना है। बिना मन के वेदों की आनुपूर्ति या वेदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता। यही ऋग्वेदादि का मन में रहना है। वस्तुतः ऋग्वेदादि शब्द स्तुति, शान्ति और क्रिया के वाचक हैं। स्तुति आदि कार्य बिना मन के नहीं होते हैं। यही स्तुत्यादि का मन में प्रतिष्ठित होना है ॥५॥
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सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयते ऽभीशुभिर्वाजिनइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ७ ॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय संहिता के शिवसङ्कल्प नामक सूक्त का छठा अर्थात् अन्तिम मन्त्र है। जिसके ऋषि 'याज्ञवल्क्य' देवता 'मन' तथा छन्द 'त्रिष्टुप्' है ॥ ७॥
प्रसंग - एक मन ही ऐसा साधन है, जिसके द्वारा प्राणी एक स्थान पर बैठे-बैठे ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड की सैर कर आता है। जिस प्रकार एक गाड़ी का कोचवान लगाम के द्वारा घोड़ों को स्वेच्छानुसार दिशा- निर्देशित करता है उसी प्रकार समस्त प्राणी मन के द्वारा शरीर और इन्द्रियों को दिशा बोध कराते हैं। ६॥
हिन्दी अनुवाद - जैसे अच्छा सारथी घोड़ों को इधर-उधर प्रेरित करता है और अपने वश में रखता है उसी प्रकार मन भी प्राणियों को इधर-उधर प्रेरित करता है और स्ववश में भी रखता है, जो नित्य तथा शीघ्रगामी है। ऐसा मेरा मन शिवसङ्कल्प वाला होवे ॥६॥
व्याख्या - कठोपनिषद् के निम्न मंत्र में भी मन को लगाम बताया गया है
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विद्धि शरीरँरथमेव। बुद्धिं तु सारथीं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ८।
अर्थात् परमात्मा ने सर्व साधन सम्पन्न मानव शरीर रूपी रथ का निर्माण किया, जिसमें इन्द्रिय रूपी बलवान् घोड़े एवं मन रूपी लगाम देकर बुद्धि रूपी सारथी को सौंप दिया। अब यह प्राणी पर निर्भर करता है कि वह अपने रथ को किस दिशा में ले जाता है क्योंकि इन्द्रियाँ बहुत बलवती होती हैं। इन इन्द्रियों को मन के द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है। मन जो सदा जरा से रहित तथा अति वेगवान् है। ऐसा मेरा मन शिवसङ्कल्प वाला होवे।
टिप्पणी - नेनीयते क्रियासमभिहार में अर्थात् पौनः पुन्य में नी धातु से यङ् + लट् आत्मनेपद, प्र० पु० ए० व०।
अभीशुभिः - अभितः श्यति, मुखै तनूकरोति, अभि + ओ + डु, वृषोदरादित्वाद् दीर्घः। वाजिनः वजगतौ + णिनिः। अथवा वाजः अन्नम् ( चणकादिः) अस्या स्तीति वाज + इनि। अथवा वाजिः वलमस्ति येषां ते। हृत्प्रतिष्ठम् - हृदि प्रतिष्ठा स्थितिर्यस्य तत्, अजिरम् - अज गतिक्षपेणयोः + किरच' 'नृवयौहानौ' से अच् प्रत्यय 'ऋतु इद्वातो:' छान्द सत्वात् द्वीर्घ नहीं हुआ। जविष्ठम् - जु गतौ सौत्रो धातुः + अप्। ज्वोऽस्या स्तीति जववत् (जव + मतुप् ) अतिशयेन जववत् इति जाविष्ठम् ' जववत् + इष्ठन्। 'अति शायने तमविष्ठानौ'। 'विन्मतोर्लुक' से मतुप् का लोप।
अश्व या वाजी दोनों शब्द घोड़े के पर्यायवाची अश्व शब्द व्यापकता, गतिमत्ता तथा वाजी शब्द बलवत्ता का बोधक हैं। इस सूक्त में अन्तिम चरण (टेक या अन्तरा) के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
यह सूक्त जो छः मन्त्रों से युक्त है। ५ ज्ञानेन्द्रियों व एक मन को लेकर लिखा गया है, इसलिए मानव 'षडक्ष' कहलाता है, किन्तु सुविचारों से युक्त होने पर 'अषडक्ष' हो जाता है। इस सूक्त का जाप करने से स्वप्न दोष या दुःख प्रदोष की निवृत्ति होती है। इसके अनुष्ठान से व्याधियों तथा हृदय रोग पर नियंत्रण सम्भव है। अग्नि पुराण में इस सूक्त के जप से मन के समाधान का विधान है "शिवसङ्कल्पजापेन समाधिं मनसो लभेत्। २६० / ७४ मनुस्मृति ११/२५१ के अनुसार यह सूक्त पापों का निवारण करता है।
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यस्मिन्नृचः साम यजूंषि।
सन्दर्भ - 'शिवसंकल्प सूक्त से उद्धृत यह मंत्रांश शुक्ल यजुर्वेद के ३४ वें अध्याय से अवतरित है, जिसके ऋषि याज्ञवल्क्य' देवता मन एवं इसमें त्रिष्टुप छन्द है।
प्रसंग - भूत, भविष्य, वर्तमान में जो भी योजनायें हम बनाते हैं। वह मन के द्वारा ही स्मृति में स्थिर रहती है और समयानुसार ही हम उस क्रियाओं को क्रियान्वित करते हैं। इस प्रकार का वर्णन ही इस मंत्र में किया गया है।
व्याख्या - जिस अमर मन के द्वारा इस संसार में भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल में सम्पूर्ण पदार्थ जाने जाते हैं। वह मेरा मन शुभ संकल्प वाला बनें यही कारण है कि मानस शति की अप्रतिम विलक्षणता का इस मंत्र में बोध कराया गया है। यदि मानव के पास मन न हो तो वह अपनी कही हुई बात को शीघ्र ही भूल सकता है। अर्थात् किसी कार्य का ध्यान नहीं रहेगा। किन्तु मन एक ऐसा साधन है। जो किसी भी काल में किये गये कार्य को स्थाई रूप से याद रहता है। अतः मेरा मन शुभ संकल्प वाला बने जिसकी सहायता से हम अपने जीवन रूप यज्ञ का विस्तार कर सकें।
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येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत
सन्दर्भ - शुक्ल यजुर्वेद संहिता का अर्थात् 'शिवसंकल्प सूक्त' का ५ वाँ मंत्र है। इस सूक्त के ऋषि याज्ञवल्क्य तथा देवता मन है।
प्रसंग - प्रस्तुत मंत्रांश में यह कहा गया है कि जब प्राणियों का मन स्थिर हो तभी वह वेदों का अध्ययन कर सकता है। क्योंकि समस्त क्रियायें मन से ही ओत-प्रोत हैं।
व्याख्या - रथ चक्र की तरह जिस मन में ऋचायें प्रतिष्ठित होती हैं। जिसमें प्राणियों का सर्व पदार्थ विषयक ज्ञान निहित है। वह मेरा मन शुभ संकल्पों वाला बनें। समस्तं प्रकार के ज्ञान का उदय मन के ही द्वारा होता है। वेदों का मन में प्रतिष्ठित होना शब्द रूप वेद का स्मरण होना है। अतः मन की श्रेष्ठता को वर्णित करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार रथ के पहिये की नाभि में तीलियाँ धँसी रहती हैं। उसी प्रकार से स्तुति करने से क्रियायें मन में प्रविष्ट होती हैं।.
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सुषारधिश्वानिव यन्मनुष्यान।
सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्रांश शुक्ल यजुर्वेद की संहिता के शिवसंकल्प नामक सूक्त से अवतरित है। यह अंतिम अर्थात् छठा मंत्र है। इसके ऋषि याज्ञवल्क्य' तथा देवता मन है।
प्रसंग - मन को ऐसा साधन बताया गया है। जिसके द्वारा प्राणी एक स्थान पर बैठे-बैठे ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सैर कर सकता है जिस प्रकार घुड़सवार स्वेच्छानुसार लगाम के द्वारा घोड़े को अपने नियंत्रण में रखता है। उसी प्रकार मन को नियंत्रित किया जा सकता है
व्याख्या - जैसे अच्छा सारथी घोडे को अपने वश में रखता है। उसी प्रकार मन भी प्राणियों को प्रेरित करता रहता है। अपने वश में रखता है। जो नित्य तथा शीघ्रगामी है। ऐसा मेरा मन शिवसंकल्प वाला बनें। परमात्मा ने सर्व साधन सम्पन्न मानव शरीर रूपी रथ का निर्माण किया जिसमें इंद्रिय रूपी बलवान घोड़े एवं मन रूपी लगाम देकर बुद्धि रूपी सारथी को सौंप दिया। इन इन्द्रियों को मन के द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है।
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- प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
- प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
- प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
- प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
- प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
- प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
- प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
- प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
- प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
- प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
- प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
- प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
- प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
- प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
- प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
- प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
- प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
- प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
- प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
- प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
- प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
- प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
- प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
- प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
- प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
- प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
- प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
- प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
- प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
- प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
- प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
- प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
- प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
- प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
- प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
- प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
- प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
- प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
- प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
- प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
- प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
- प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
- प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
- प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
- प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
- प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
- प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
- प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
- प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
- प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
- प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
- प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
- प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
- प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
- प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।